सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
प्राप्तेति॥ प्राप्तानुगः प्राप्तानुचरो राजा सपद्यस्य मुनेः शासनं काषअठसंभारणरूपं प्रागेकोऽपि संप्रति प्राप्तानुचरत्वात्संपाद्य पातकेन मुनिवधरूपेण विलुप्तधृतिर्नष्टोत्साहः सन्। अन्तर्निविष्टपदमन्तर्लब्धस्थानमात्मविनाशहेतुं शापम्। अम्बुराशिरौर्वं ज्वलनं वडवानलमिव। और्वस्तु वाडवो वडवानलः
इत्यमरः (अमरकोशः १.१.६८ ) । दधद्धृतवान्सन्। निवृत्तः। वनादिति शेषः ॥
छन्दः
वसन्ततिलका [१४: तभजजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ |
---|
प्रा | प्ता | नु | गः | स | प | दि | शा | स | न | म | स्य | रा | जा |
सं | पा | द्य | पा | त | क | वि | लु | प्त | धृ | ति | र्नि | वृ | त्तः |
अ | न्त | र्नि | वि | ष्ट | प | द | मा | त्म | वि | ना | श | हे | तुं |
शा | पं | द | ध | ज्ज्व | ल | न | मौ | र्व | मि | वा | म्बु | रा | शिः |
त | भ | ज | ज | ग | ग |