सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
इत्थमिति॥ इत्थं गते प्रवृत्ते सति। वसुधाधिपेन राज्ञा। गतघृणो निष्करुणः, हन्तृत्वान्निष्कृप इत्यर्थः। अत एव तव वध्यो वधार्होऽयं जनः। अयम्
इति राज्ञो निर्वेदादनादरेण स्वात्मनिर्देशः। किं विधत्तामित्यभिहित उक्तः, मया किं विधेयम्?
इति विज्ञापित इत्यर्थः। स मुनिः सदारः सभार्यः परासुं गतासुं पुत्रमनुगन्तुं मनो यस्य सोऽनुगन्तुमनाः सन्। तुं काममनसोरपि
इति मकारलोपः। हुताशनवतः साग्नीनेधान् काषअठानि ययाचे। न चात्रात्मघातदोषः-अनुषअठानासमर्थस्य वानप्रस्थस्य जीर्यतः। भृग्वग्निजलसंपतैर्मरणं प्रविधीयते॥
इत्युक्तेः ॥
छन्दः
वसन्ततिलका [१४: तभजजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ |
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इ | त्थं | ग | ते | ग | त | घृ | णः | कि | म | यं | वि | ध | त्तां |
व | ध्य | स्त | वे | त्य | भि | हि | तो | व | सु | धा | धि | पे | न |
ए | धा | न्हु | ता | श | न | व | तः | स | मु | नि | र्य | या | चे |
पु | त्रं | प | रा | सु | म | नु | ग | न्तु | म | नाः | स | दा | रः |
त | भ | ज | ज | ग | ग |