सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
तदिति॥ तञ्चोदितस्तेन पुत्रेण चोदितः पितृसमीपं प्रापय
इत्युक्तः स नृपतिरनुद्धृतशल्यमनुत्पाटितशरमेव तं मुनिपुत्रम्। अवसन्नदृशोर्नष्टचक्षुषोः। अन्धयोरित्यर्थः। पित्रोर्मातापित्रोः। पिता मात्रा
(अष्टाध्यायी १.२.७० ) इत्येकशेषः। सकाशं समीपं निनाय। इदं च रामायणविरुद्धम्। तत्र-अथाहमेकस्तं देशं नीत्वा तौ भृशदुःखितौ। अस्पर्शयमहं पुत्रं तं मुनिं सह भार्यया॥
(अयोध्या.६४।२८) इति नदीतीर एव मृतं पुत्रं प्रति पित्रोरानयनाभिधानात्। तथागतं वेतसगूढम्। एकश्चासौ पुत्रश्च तमेकपुत्रम्। एक
ग्रहणं पित्रोरनन्यगतिकत्वसूचनार्थम्। तं मुनिपुत्रमुपेत्य संनिकृष्टं गत्वाऽज्ञानतः करिभ्रान्त्या स्वचरितं स्वकृतं ताभ्यां मातापितृभ्याम्। क्रियाग्रहणाञअचतुर्थी। शशंस कथितवान् ॥
छन्दः
वसन्ततिलका [१४: तभजजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ |
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त | ञ्चो | दि | तः | स | त | म | नु | द्धृ | त | श | ल्य | मे | व |
पि | त्रोः | स | का | श | म | व | स | न्न | दृ | शो | र्नि | ना | य |
ता | भ्यां | त | था | ग | त | मु | पे | त्य | त | मे | क | पु | त्र |
म | ज्ञा | न | तः | स्व | च | रि | तं | नृ | प | तिः | श | शं | स |
त | भ | ज | ज | ग | ग |