सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
तेनेति॥ प्रथितान्वयेन प्रख्यातवंशेन। एतेन पापभीरुत्वं सूचितम्। तेन राज्ञः तुरगादवतीर्य पृष्टान्वपयो ब्रह्महत्याशङ्कया पृष्टकुलः। जलकुम्भनिषण्णदेहः स मुनिपुत्रस्तस्मै राज्ञे स्खलद्भिः। अशक्तिवशादर्धोञ्चारितैरित्यर्थः। अक्षरप्रायैः पदैरक्षरपदैरात्मानं द्विजेतरश्चासौ तपस्विसुतश्च तं द्विजेतरतपस्विसुतं कथयांबभूव। न तावत्त्रैवर्णिक एवाहमस्मि, किंतु करणः। वैश्यात्तु करणः शूद्र्यां
(आचार.४।९२) इति याज्ञवल्क्यः। कुतो ब्रह्महत्येत्यर्थः। तथा च रामायणे-(अयोध्या.६।५०) ब्रह्महत्याकृतं पापं हृदयादपनीयताम्। न द्विजातिरहं राजन्। मा भूत्ते मनसो व्यथा॥ शूद्रायामस्मि वैश्येन जातो जनपदाधिप!।
इति ॥
छन्दः
वसन्ततिलका [१४: तभजजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ |
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ते | ना | व | ती | र्य | तु | र | गा | त्प्र | थि | ता | न्व | ये | न |
पृ | ष्टा | न्व | यः | स | ज | ल | कु | म्भ | नि | ष | ण्ण | दे | हः |
त | स्मै | द्वि | जे | त | र | त | प | स्वि | सु | तं | स्ख | ल | द्भि |
रा | त्मा | न | म | क्ष | र | प | दैः | क | थ | यां | ब | भू | व |
त | भ | ज | ज | ग | ग |