सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
तानिति॥ काकुत्स्थो दशरतः। गजकुलेषु बद्धं तीव्रं वैरं यैस्तान्। कुटिलेषु नखाग्रेषु लग्ना मुक्ता गजकुम्भमौक्तिकानि येषां तान्सिंहान्हत्वा आत्मानं रणेषु कृतकर्मणां कृतोपकाराणां गजानामानृण्यमनृणत्वं मार्गणैः शरैः। मार्गणो याचके शरे
इति विश्वः। गतं प्राप्तवन्तमिवामंस्त मेने ॥
छन्दः
प्रहर्षिणी [१३: मनजरग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ |
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ता | न्ह | त्वा | ग | ज | कु | ल | ब | द्ध | ती | व्र | वै | रा |
न्का | कु | स्थः | कु | टि | ल | न | खा | ग्र | ल | ग्न | मु | क्तान् |
आ | त्मा | नं | र | ण | कृ | त | क | र्म | णां | ग | जा | ना |
मा | नृ | ण्यं | ग | त | मि | व | मा | र्ग | णै | र | मं | स्त |
म | न | ज | र | ग |