निकुञ्जकुञ्जौ वा क्लीवे लतादिपिहितोदरे
इत्यमरः (अमरकोशः २.३.९ ) । सिंहाञ्जिघांसुर्हन्तुमिच्छुः। निर्घातो व्योमोत्थित औत्पातिकः शब्द विशेषः। तद्वदुग्रै रौद्रैर्ज्यानिर्घोषैर्मौर्वीशब्दैः क्षोभयामास। अत्रोत्प्रेक्षते-तेषां सिंहानां संबन्धिनि वीर्येणोदग्र उन्नते मृगेषु विषये यो राजशब्दस्तस्मिन्नभ्यसूयापरोऽभून्नृनम्। अन्यथा कथमेतानन्विष्य हन्यादित्यर्थः। मृगाणाम्
इति पाठे समासे गुणभूतत्वात् राज
शब्देन संबन्धो दुर्घटः। शालिनीवृत्तम्-शालिन्युक्ता स्तौ तगौ गोऽब्धिलोकैः
इति लक्षणात् ॥
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नि | र्घा | तो | ग्नैः | कु | ञ्ज | ली | ना | ञ्जि | घां | सु |
र्ज्या | नि | र्घो | षैः | क्षो | भ | या | मा | स | सिं | हान् |
नू | नं | ते | पा | म | भ्य | सृ | या | प | रो | ऽभू |
द्वी | र्यो | द | ग्रे | रा | ज | श | ब्दो | मृ | गे | षु |