सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
प्राय इति॥ नृपतिर्निशितैः क्षुरप्रैः शरविशेषैः खङ्गान् खङ्गाख्यान्मृगान्। गण्डके खङ्गखङ्गिनौ
इत्यमरः (अमरकोशः ३.३.३१ ) । प्रायो बाहुल्येन विषाणपरिमोक्षेण शृङ्गभङ्गेन लघून्यगुरूण्युत्तमाङ्गानि शिरांसि येषां तांश्चकार। न त्ववधीदित्यर्थः। कुतः? दृप्तविनयाधिकृतो दुष्टनिग्रहनियुक्तः स राजा परेषां प्रतिकूलानामत्युच्छ्रितमुन्नतं श्रृङ्गं विषाणं प्राधान्यं च। शृङ्गं प्राधान्यसान्वोश्च
इत्यमरः (अमरकोशः ३.३.३१ ) । न ममृषे न सेहे। दीर्घमायुर्जीवितकालम्। आयुर्जीवितकालो ना
इत्यमरः (अमरकोशः ३.३.३१ ) । न ममृषे इति न। किंतु ममृष एवेत्यर्थः ॥
छन्दः
वसन्ततिलका [१४: तभजजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ |
---|
प्रा | यो | वि | षा | ण | प | रि | मो | क्ष | ल | घू | त्त | मा | ङ्गा |
न्ख | ङ्गां | श्च | का | र | नृ | प | ति | र्नि | क्षि | तैः | क्षु | र | प्रैः |
श्रृ | ङ्गं | स | दृ | प्त | वि | न | या | धि | कृ | तः | प | रे | षा |
म | त्यु | च्छ्रि | तं | न | म | मृ | षे | न | तु | दी | र्घ | मा | युः |
त | भ | ज | ज | ग | ग |