सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
तेनेति॥ अभिघातो सभस औत्सुक्यं यस्य तस्य। अभिहन्तुमुद्यतस्येत्यर्थः। वन्यस्य वने भवस्य महिषस्य नेत्रविवरे नेत्रमध्ये तेन नृपेण विकृष्याकृष्य मुक्तः पत्री शरो विग्रहं महिषदेहं निर्भिद्य विदार्य। शोणितलिप्तो न भवतीत्यशोणितलिप्तः पुङ्खो यस्य स तथोक्तः सन्। तं महिषं प्रथमं पातयाभवतीत्यशोणितलिप्तः पुङ्खो यस्य स तथोक्तः सन्। तं महिषं प्रथमं पातयामास। स्वयं पश्चात्पपात। कृञ्चानुप्रयुज्यते लिटि
(अष्टाध्यायी ३.१.४० ) इत्यत्रानुशब्दस्य व्यवहितविपर्यस्तप्रयोगनिवृत्त्यर्थत्वात् पातयां प्रथममास
इत्यपप्रयोग इति पाणिनीयाः। यथाह वार्तिककारः-विपर्यासनिवृत्त्यर्थः व्यवहितवृत्त्यर्थं च
इति ॥
छन्दः
वसन्ततिलका [१४: तभजजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ |
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ते | ना | भि | घा | त | र | भ | स | स्य | वि | कृ | ष्य | प | त्री |
व | न्य | स्य | ने | त्र | वि | व | रे | म | हि | ष | स्य | मु | क्तः |
नि | र्भि | द्य | वि | ग्र | ह | म | शो | णि | त | लि | प्त | पु | ङ्ख |
स्तं | पा | त | यां | प्र | थ | म | मा | स | प | पा | त | प | श्चात् |
त | भ | ज | ज | ग | ग |