सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
तमिति॥ वराहाः। वाहनादश्वादीषदवनतोत्तरकायं किंचिदानतपूर्वकायं विध्यन्तं प्रहरन्तं तं नृपम्। उद्धृतसटा ऊर्ध्वकेसराः सन्तः। सटा जटाकेसरयोः
इति केशवः। प्रतिहन्तुमीषुः प्रतिहर्तुमैच्छन्। अस्य नृपस्येषुभिः सहसा जघनानामाश्रयेष्ववष्टम्भेषु वृक्षेषु विद्धमात्मानं न विविदुः। एतेन वराहाणां मनस्वित्वं नृपस्य हस्तलाघवं चोक्तम् ॥
छन्दः
वसन्ततिलका [१४: तभजजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ |
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तं | वा | ह | ना | द | व | न | तो | त्त | र | का | य | मी | ष |
द्वि | ध्य | न्त | मु | द्धृ | त | स | टाः | प्र | ति | ह | न्तु | मी | षुः |
ना | त्मा | न | म | स्य | वि | वि | दुः | स | ह | सा | व | रा | हा |
वृ | क्षे | षु | वि | द्ध | मि | षु | भि | र्ज | घ | ना | श्र | ये | षु |
त | भ | ज | ज | ग | ग |