सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
तस्येति॥ त्रासाद्भयादतिमात्रचटुलैरत्यन्तचञ्चलैः सुनेत्रैः प्रौढप्रियानयनविभ्रमचेष्टितानि प्रगल्भकान्ताविलोचनविवलासव्यापारान्सादृश्यात्स्मरतः। अपरेष्वपि मृगेषु शरान्मुमुक्षोर्मोक्तुमिच्छोस्तस्य नृपस्य निबिडो दृढोऽपि मुष्टिः कर्णान्तमेत्य प्राप्य बिभिदे। स्वयमेव भिद्यते स्म। भिदेः कर्मकर्तरि लिट्। कामिनस्तस्य प्रियाविभ्रमस्मृतिजनितकृपातिरेकान्मुष्टिभेदः। न त्वनैपुण्यादिति तात्पर्यार्थः ॥
छन्दः
वसन्ततिलका [१४: तभजजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ |
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त | स्या | प | रे | ष्व | पि | मृ | गे | षु | श | रा | न्मु | मु | क्षोः |
क | र्णा | न्त | मे | त्य | बि | भि | दे | नि | बि | डो | ऽपि | मु | ष्टिः |
त्रा | सा | ति | मा | त्र | च | टु | लैः | स्म | र | तः | सु | ने | त्रैः |
प्रौ | ढ | प्रि | या | न | य | न | वि | भ्र | म | चे | ष्टि | ता | नि |
त | भ | ज | ज | ग | ग |