सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
लक्ष्यीकृतेति॥ हरिरिन्द्रो विष्णुर्वा तस्येव प्रभावः सामर्थ्य यस्य स तथोक्तः। धन्वी धनुष्मान् स नृपः। लक्ष्यीकृतस्य वेद्धुमिष्टस्य हरिणस्य स्वप्रेयसो देहं व्यवधायानुरागादन्तर्धाय स्थिताम्। सह चरतीति सहचरी। पचादिषु चरतेष्टित्करणान्ङीप्। यथाह वामनः-अनुचरीति चरेष्टित्त्वात्
इति। तां सहचरीं हरिणीं प्रेक्ष्य कामितया स्वयं कामुकत्वात्। कृपामृदुमनाः करुणार्द्रचितः सन्। आकर्णकृष्टमपि। दुष्प्रतिसंहरमपीत्यर्थः। बाणं प्रतिसंजहार। नैपुण्यादित्यर्थः। नैपुण्यं तु धन्वी
इत्यनेन गम्यते ॥
छन्दः
वसन्ततिलका [१४: तभजजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ |
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ल | क्ष्यी | कृ | त | स्य | ह | रि | ण | स्य | ह | रि | प्र | भा | वः |
प्रे | क्ष्य | स्थि | तां | स | ह | च | रीं | व्य | व | धा | य | दे | हम् |
आ | क | र्ण | कृ | ष्ट | म | पि | का | मि | त | या | स | ध | न्वी |
बा | णं | कृ | पा | मृ | दु | म | नाः | प्र | ति | सं | ज | हा | र |
त | भ | ज | ज | ग | ग |