सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
तदिति॥ जवनो जवशीलः। जुचंक्रम्य
- (अष्टाध्यायी ३.२.१५० ) इत्यादिना युच्प्रत्तययः। तरस्वी त्वरितो वेगी प्रजवी जवनो जवः
इत्यमरः (अमरकोशः २.८.७३ ) । तं वाजिनमश्वं गतेनारूडेन। तूणीषुधिः। बह्वादिभ्यश्च
(अष्टाध्यायी ४.१.५४ ) इति स्त्रियां ङीष्। तस्या मुखाद्विवरादुद्धृतशरेण राज्ञा प्रार्थितमभियाचितम्। याच्ञायामभियाने च प्रार्थना कथ्यते बुधैः
इति केशवः। अत एव विशीर्णा पङ्क्तिः संघीभावो यस्य तत्। मृगयूथं कर्तृ आद्रैर्भयादश्रुसिक्तैराकुला भयचकिता ये दृष्टिपातास्तैः। वातेरितोत्पलदलप्रकरैः पवनकम्पितेन्दीवरदलवृन्दैरिव। वनं श्यामीचकार ॥
छन्दः
वसन्ततिलका [१४: तभजजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ |
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त | त्प्रा | र्थि | तं | ज | व | न | वा | जि | ग | ते | न | रा | ज्ञा |
तू | र्णी | मु | खो | द्धृ | त | श | रे | ण | वि | शी | र्ण | प | ङ्क्ति |
श्या | मी | च | का | र | व | न | मा | कु | ल | दृ | ष्टि | पा | तै |
र्वा | ते | रि | तो | त्प | ल | द | ल | प्र | क | रै | रि | वा | र्द्रैः |
त | भ | ज | ज | ग | ग |