सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
त्यजतेति॥ बत
इत्यामन्त्रणे। खेदानुकम्पासंतोषविस्मयामन्त्रणे बत
इत्यमरः। बत अङ्गाना मानं कोपं त्यजत। तदुक्तम्-स्त्रीणामीर्ष्याकृतः कोपो मानोऽन्यासङ्गिनि प्रिये
इति। विग्रहैर्विरोधैरलम्। विग्रहो न कार्य इत्यर्थः। गतमतीतं चतुरमुपभोगक्षमं वयो यौवनं पुनर्नैति नागच्छति। इत्येवंरूपे स्मरमते स्मराभिप्राये। नपुंसके भावे क्तः। परभृताभिः कोकिलाभिर्निवेदिते सतीव वधूजनो रमते स्म रेमे। कोकिलाकूजितोद्दीपितस्मरः स्त्रीजनः कामशासनभयादिवोच्छृङ्खलमखेलदित्यर्थः ॥
छन्दः
द्रुतविलम्बितम् [१२: नभभर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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त्य | ज | त | मा | न | मा | लं | ब | त | वि | ग्र | है |
र्न | पु | न | रे | ति | ग | तं | च | तु | रं | व | यः |
प | र | भृ | ता | भि | रि | ती | व | नि | वे | दि | ते |
स्म | र | म | ते | र | म | ते | स्म | व | धू | ज | नः |
न | भ | भ | र |