सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
ध्वजेति॥ अलिव्रजाः षट्पदनिवहा धनुर्भृतो धानुष्कस्य मदनस्य कामस्य ध्वजपटं पताकाभूतम्। ऋतुश्रियो वसन्तलक्ष्म्याश्छविकरं शोभाकरं मुखचूर्णं मुखालंकारचूर्णभूतं सपवनोपवनोत्थितं सपवनं पवनेन सहितं यदुपवनं तस्मिन्नुत्थितम्। कुसुमानां केसरेषु किञ्जल्केषु यो रेणुस्तम्। अन्वयुरन्वगच्छन्। यातेर्लङ् ॥
छन्दः
द्रुतविलम्बितम् [१२: नभभर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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ध्व | ज | प | टं | म | द | न | स्य | ध | नु | र्भृ | त |
श्छ | वि | क | रं | मु | ख | चू | र्ण | मृ | तु | श्रि | यः |
कु | सु | म | के | स | र | रे | णु | म | लि | व्र | जाः |
स | प | व | नो | प | व | नो | त्थि | त | म | न्व | युः |
न | भ | भ | र |