सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
उपचितेति॥ शुचिभिः शुभ्रैः कणै रजोभिरुपचितावयवा पुष्टावयवा। अलिकदम्बकयोगमुपेयुषी प्राप्ता। तिलकजा तिलकवृक्षोत्था मञ्जरी। अलकेषु जय्यालकमाभरणविशेषस्तस्मिन्मौक्तिकैः सदृशकान्तिः। अलक्ष्यत। भृङ्गसङ्गिनी शुभ्रा तिलकमञ्जरी नीलालकसक्ताजालमिवालक्ष्यतेति वाक्यार्थः ॥
छन्दः
द्रुतविलम्बितम् [१२: नभभर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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उ | प | चि | ता | व | य | वा | शु | चि | भिः | क | णै |
र | लि | क | द | म्ब | क | यो | ग | मु | पे | यु | षी |
स | दृ | श | का | न्ति | र | ल | क्ष्य | त | म | ञ्ज | री |
ति | ल | क | जा | ल | क | जा | ल | क | मौ | क्ति | कैः |
न | भ | भ | र |