सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
अरुणेति॥ विलासिनो विलसनशीलाः पुरुषाः। वौ कषलस-
(अष्टाध्यायी ३.२.१४३ ) इत्यादिना घिनुण्प्रत्ययः। अरुणस्यानूरो रागमारुण्यं निषेधन्ति तिरस्कुर्वन्तीत्यरुणरागनिषेधिनः। तैः। कुसुम्भादिरञ्जनात्तत्सदृशैरित्यर्थथः। तमन्वेत्यनुबध्नाति तच्छीलं तन्निषेधति। तस्येवानुकरोतीति शब्दाः सादृश्यवाचकाः॥
इति दण्डी। अंशुकैरम्बरैः। श्रवणेषु कर्णेषु लब्धपदैः। निवेशितैरित्यर्थः। यवाङ्कुरैश्च परभृताविरुतैः कोकिलाकूजितैश्च। इत्येतैः स्मरबलैः। कामसैन्यैः। अबलास्वेक एव रसो रागो येषां तेऽबलैकरसाः स्त्रीपरतन्त्राः कृताः ॥
छन्दः
द्रुतविलम्बितम् [१२: नभभर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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अ | रु | ण | रा | ग | नि | षे | धि | भि | रं | शु | कैः |
श्र | व | ण | ल | ब्ध | प | दै | श्च | य | वा | ङ्कु | रैः |
प | र | भृ | ता | वि | रु | तै | श्च | वि | ला | सि | नः |
स्म | र | ब | लै | र | ब | लै | क | र | साः | कृ | ताः |
न | भ | भ | र |