सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
श्रुतीति॥ श्रुतिसुखाः कर्णमधुरा भ्रमरस्वना एव गीतयो यासां ताः। कुसुमान्येव कोमला दन्तरुचो दन्तकान्तयो यासां ताः। अनेन सस्मितत्वं विवक्षितम्। उपवनान्तलताः पवनेनाहतैः कम्पितैः किसलयैः सलयैः साभिनयैः। लय
शब्देन लयानुगतोऽभिनयो लक्ष्यते। उपवनान्ते पवनाहतैरिति सक्रियत्वाभिधानात्। पाणिभिरिव बभुः। अनेन तलानां नर्तकीसाम्यं गम्यते ॥
छन्दः
द्रुतविलम्बितम् [१२: नभभर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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श्रु | ति | सु | ख | भ्र | म | र | स्व | न | गी | त | यः |
कु | सु | म | को | म | ल | द | न्त | रु | चो | ब | भुः |
उ | प | व | ना | न्त | ल | ताः | प | व | ना | ह | तैः |
कि | स | ल | यैः | स | ल | यै | रि | व | पा | णि | भिः |
न | भ | भ | र |