वीणा तु वल्लकी। विपञ्ची सा तु तन्त्रीभिः सप्तभिः परिवादिनी॥
इत्यमरः (अमरकोशः १.७.४ ) । पवनस्य वायोरवलेपोऽधिक्षेपस्तज्जमञ्जनेन कज्जलेनाविलं कलुषं बाष्पमश्रु सृजतीव मुञ्चतीव। ददृशे दृष्टा। भ्रमराणां साञ्जनबाष्पबिन्दुसादृश्यं विवक्षितम्। वा नपुंसकस्य
(अष्टाध्यायी ७.१.७९ ) इति वर्तमाने आच्छीनद्योर्नुम्
(अष्टाध्यायी ७.१.८० ) इति नुम्विकल्पः ॥
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भ्र | म | रैः | कु | सु | मा | नु | सा | रि | भिः | |
प | रि | की | र्णा | प | रि | वा | दि | नी | मु | नेः |
द | दृ | शे | प | व | ना | व | ले | प | जं | |
सृ | ज | ती | बा | ष्प | मि | वा | ञ्ज | ना | वि | लम् |