पुंस्याधिर्मानसी व्यथा
इत्यमरः (अमरकोशः १.७.३० ) । सोऽजोऽधिज्यकार्मुकः अधिज्यमारोपितमौर्वीकं कार्मुकं यस्य स तथोक्तः सन्। जगत् कर्मभूतमप्रतिशासनं द्वितीयाज्ञारहितम्। आत्माज्ञाविधेयमित्यर्थः। कृतवांश्चकार ॥
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स | प | रा | र्ध्य | ग | ते | र | शो | च्य | तां | |
पि | तु | रु | द्दि | श्य | स | द | र्थ | वे | दि | भिः |
श | मि | ता | धि | र | धि | ज्य | का | र्मु | कः | |
कृ | त | वा | न | प्र | ति | शा | स | नं | ज | गत् |