सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
अकरोदिति॥ पितृकार्यस्य तातश्राद्धस्य कल्पविद्विधानज्ञः सोऽजः पितृभक्त्या पितरि प्रेम्णा करणेन न पितुः परलोकसुखापेक्षया। मुक्तत्वादिति भावः। तस्य रघोरौर्ध्वदैहिकम्। देहादूर्ध्वं भवतीति तत्तिलोदकपिण्डदानादिकमकरोत्। ऊर्ध्वं देहाञ्च
इति वक्तव्याट्टक्प्रक्ययः। अनुशतिकादित्वादुभयपदवृद्धिः। ननु कथं भक्तिरेव श्राद्धादिफलप्रेप्सापि कस्मान्नाभूदित्याशङ्क्याह-न हीति। तेन पथा योगरूपेण मार्गेण तनुत्यजः शरीरत्यागिनः पुरुषास्तनयेनावर्जितं दत्तं पिण्डं काङ्क्षन्तीति तथोक्ता न हि भवन्ति ॥
छन्दः
वियोगिनी []
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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अ | क | रो | त्स | त | दौ | र्ध्व | दै | हि | कं |
पि | तृ | भ | क्त्या | पि | तृ | का | र्य | क | ल्प | वित् |
न | हि | ते | न | त | था | त | नु | त्य | ज |
स्त | न | या | व | र्जि | त | पि | ण्ड | का | ङ्क्षि | णः |