सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
प्रथमेति॥ प्रथममजागमनात्प्रागेव परिगतो ज्ञातोऽर्थो विवाहविजयरूपो येन स प्रथमपरिगतार्थो रघुर्विजयिनं विजययुक्तं श्लाघ्यजायासमेतं संनिवृत्तं प्रत्यागतं तमजमभिनन्द्य। तस्मिन्नज उपहितकुटुम्बः सन्। सुतविन्यस्तपत्नीकः
(प्राय.३।४५१) इति याज्ञवल्क्यस्मरणादिति भावः। शान्तिमार्गो मोक्षमार्ग उत्सुकोऽभूत्। तथा हि-कुलधुर्ये कुलधुरंधरे सति सूर्यवंश्या गृहाय गृहस्थाश्रमाय न भवन्ति ॥
छन्दः
मालिनी [१५: ननमयय]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ |
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प्र | थ | म | प | रि | ग | ता | र्थ | स्तं | र | घुः | सं | नि | वृ | त्तं |
वि | ज | यि | न | म | भि | न | न्द्य | श्ला | घ्य | जा | या | स | मे | तम् |
त | दु | प | हि | त | कु | टु | म्बः | शा | न्ति | मा | र्गो | त्सु | को | ऽभू |
न्न | हि | स | ति | कु | ल | धु | र्ये | सू | र्य | वं | श्या | गृ | हा | य |
न | न | म | य | य |