सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
शिलीमुखेति॥ शिलूमुखैर्बाणैरुत्कृत्तानि शिरांस्येव फलानि तैराढ्या संपन्ना। च्युतैर्भ्रष्टैः शिरांसि त्रायन्त इति शिरस्त्राणि शीर्षण्यानि। शीर्षण्यं च शिरस्त्रे च
इत्यमरः (अमरकोशः २.८.६४ ) । तैश्चषकोत्तरा चषकः पानपात्रमुत्तरं यस्याः सेव। चषकोऽस्त्री पानपात्रम्
इत्यमरः (अमरकोशः २.८.६४ ) । शोणितान्येव मद्यं तस्य कुल्याः प्रवाहा यस्यां सा। कुल्याल्पा कृत्रिमा सरित्
इत्यमरः (अमरकोशः २.८.६४ ) । रणक्षितिर्युद्धभूमिर्मृत्योः पानभूमिरिव रराज ॥
छन्दः
उपेन्द्रवज्रा [११: जतजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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शि | ली | मु | खो | त्कृ | त्त | शि | रः | फ | ला | ढ्या |
च्यु | तैः | शि | र | स्त्रै | श्च | ष | को | त्त | रे | व |
र | ण | क्षि | तिः | शो | णि | त | म | द्य | कु | ल्या |
र | रा | ज | मृ | त्यो | रि | व | पा | न | भू | मिः |
ज | त | ज | ग | ग |