सस्यबाणाग्रयोः फलम्
इति विश्वः। पूर्वार्धभागैः। शृणातीति शरुः। तस्मै हितं शरव्यं लक्ष्यम्। उगवादिभ्यो यत्
(अष्टाध्यायी ५.१.२ ) इति यत्प्रत्ययः। लक्षं लक्ष्यं शरव्यं च
इत्यमरः (अमरकोशः २.८.८६ ) । संप्रापुरेव, न तु मध्ये पतिता इत्यर्थः॥
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अ | प्य | र्ध | मा | र्गे | प | र | बा | ण | लू | ना |
ध | नु | र्भृ | तां | ह | स्त | व | तां | पृ | ष | त्काः |
सं | प्रा | पु | रे | वा | त्म | ज | वा | नु | वृ | त्त्या |
पू | र्वा | र्ध | भा | गैः | फ | लि | भिः | श | र | व्यम् |