सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
प्रहारेति॥ रथस्था रथिनः प्रहारेण या मूर्च्छा तस्या अपगमे सति। मूर्च्छितानामन्यत्र नीत्वा संरक्षणं सारथिधर्म इति कृत्वा। निवर्तिताश्वान्यन्तॄन् सारथीनुपालभ्य असाधु कृतम्
इत्यधिक्षिप्य। पूर्वं यैः स्वयं सादिता हताः। लक्षितपूर्वकेतून्। पूर्वदृष्टैः केतुभिः प्रत्यभिज्ञातानित्यर्थः। तानेव सामर्षतया सकोपत्वेन हेतुना निजघ्नुः प्रजह्रुः ॥
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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प्र | हा | र | मू | र्च्छा | प | ग | मे | र | थ | स्था |
य | न्तॄ | नु | पा | ल | भ्य | नि | व | र्ति | ता | श्वान् |
यैः | सा | दि | ता | ल | क्षि | त | पू | र्व | के | तूं |
स्ता | ने | व | सा | म | र्ष | त | या | नि | ज | घ्नुः |