सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
प्रमन्यव इति॥ नृपा राजानः प्रागपि प्रत्येकमात्तस्वतया दिग्विजये गृहीतधनत्वेन कोसलेन्द्रे रघौ प्रमन्यवो रूढवैरा बभूवुः। अतो हेतोः समेताः संगताः सन्तस्तदात्मजस्य रघुसूनोः स्त्रीरत्नलाभं न चक्षमिरे न सेहिरे ॥
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
---|
प्र | म | न्य | वः | प्रा | ग | पि | को | स | ले | न्द्रे |
प्र | त्ये | क | मा | त्त | स्व | त | या | ब | भू | वुः |
अ | तो | नृ | पा | श्च | क्ष | मि | रे | स | मे | ताः |
स्त्री | र | त्न | ला | भं | न | त | दा | त्म | ज | स्य |