सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
आसीदिति॥ वरः कण्टकितः पुलकितः प्रकोष्ठो यस्य स आसीत्। सीच्यग्रे क्षुद्रशत्रौ च रोमहर्षे च कण्टकः
इत्यमरः। कुमारी स्विन्नाङ्गुलिः संववृते बभूव। अत्रोत्प्रेक्षते-तस्मिन्द्वये मिथुने तत्क्षणमात्मवृत्तिः सात्त्विकोदयरूपा वृत्तिर्मनोभवेन कामेन समं विभक्तेव पृथक्कृतेव। प्राक्सिद्धस्याप्यनुरागसाम्यस्य संप्रति तत्कार्यदर्शनात्पाणिस्पर्शकृतत्वमुत्प्रेक्षते। अत्र वात्स्यायनः-कन्या तु प्रथमसमागमे स्विन्नाङ्गुलिः स्विन्नमुखी च भवति। पुरुषस्तु रोमाञ्चितो भवति। एभिरनयोर्भावं परीक्षित्।
इति। स्त्री-पुरुषयोः स्वेदरोमाञ्चाभिधानं सात्त्विकमात्रोपलक्षणम्। न तु प्रतिनियमो विवक्षितः; एभिः
इति बहुवचनसामर्थ्यात्। एवं सति कुरामसंभवे(७।७७)-रोमोद्गमः प्रादुरभूदुमायाः स्विन्नाङ्गुलिः पुंगवकेतुरासीत्
इति व्युत्क्रमवचनं न दोषायेति। वृत्तिस्तयोः पाणिसमागमेन समं विभक्तेव मनोभवस्य
इत्यपरार्धस्य पाठान्तरे व्याख्यानान्तरम्-पाणिसमागमेन पाण्योः संस्पर्शेन कर्त्रा तयोर्वधूवरयोर्मनोभवस्य वृत्तिः स्थितिः समं विभक्तेव। समीकृतेवेत्यर्थः ॥
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
---|
आ | सी | द्व | रः | क | ण्ट | कि | त | प्र | को | ष्ठः |
स्व | न्ना | ङ्गु | लिः | सं | व | वृ | ते | कु | मा | री |
त | स्मि | न्द्व | ये | त | त्क्ष | ण | मा | त्म | वृ | त्तिः |
स | मं | वि | भ | क्ते | व | म | नो | भ | वे | न |