सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
हस्तेनेति॥ स राजसूनुर्हस्तेन स्वकीयेन वध्वा हस्तं परिगृह्य। अनन्तरायाः संनिहिताया अशोकलतायाः प्रवालं पल्लवं प्रतिपल्लवेन स्वकीयेन प्राप्य चूत आम्र इव। सुतरां चकासे ॥
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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ह | स्ते | न | ह | स्तं | प | रि | गृ | ह्य | व | ध्वाः |
स | रा | ज | सू | नुः | सु | त | रां | च | का | से |
अ | न | न्त | रा | शो | क | ल | ता | प्र | वा | लं |
प्रा | प्ये | व | चू | तः | प्र | ति | प | ल्ल | वे | न |