स्थाने वृता
(७।१३) इत्याद्युक्तप्रकारेण पौरवधूमुखेभ्य उद्गता उत्पन्नाः श्रोक्षयोः सुखा मधुराः। सुख
शब्दो विशेष्यनिघ्नः। पापपुण्यसुखादि च
इत्यमरः। कथा गिरः शृण्वन् कुमारोऽजो मङ्गलसंविधाभिर्मङ्गलरचनाभिरुद्भासितं शोभितं-संबन्धिनः कन्यादायिनः सद्म गृहं समाससाद प्राप ॥
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इ | त्यु | द्ग | ताः | पौ | र | व | धू | मु | खे | भ्यः |
शृ | ण्व | न्क | थाः | श्रो | त्र | सु | खाः | कु | मा | रः |
उ | द्भा | सि | तं | म | ह्ग | ल | सं | वि | धा | भिः |
सं | ब | न्धि | नः | स | द्म | स | मा | स | सा | द |
त | त | ज | ग | ग |