सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
रतीति॥ रतिस्मरौ यौ नित्यसहचरावित्यभिप्रायः। नूनं तावेवेयं चायं चेमौ दंपती। अभूताम्। एतद्रूपेणोत्पन्नौ। कुतः? तथा हि-इयं बाला राज्ञां सहस्रेषु राजसहस्रमध्ये। सत्यपि व्यत्यासकरण इति भावः। आत्मप्रतिरूपं स्वतुल्यमेव। तुल्यसंकाशनीकाशप्रकाशप्रतिरूपकाः
इति दण्डी। गता प्राप्ता। तदपि कथं जातमत आह-हि यस्मान्मनो जन्मान्तरसंगतिज्ञं भवति। तदेवेदम्
इति प्रत्यभिज्ञाभावेऽपि वासनाविशेषशादनुभूतार्थेषु मनः प्रवृत्तिरस्तीत्युक्तम्। जन्मान्तरसाहचर्यमेवात्र प्रवर्तकमिति भावः ॥
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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र | ति | स्म | रौ | नू | न | मि | मा | व | भू | तां |
रा | ज्ञां | स | ह | स्रे | षु | त | था | हि | बा | ला |
ग | ते | य | मा | त्म | प्र | ति | रू | प | मे | व |
म | नो | हि | ज | न्मा | न्त | र | सं | ग | ति | ज्ञम् |