द्वन्द्वं रहस्य-
(अष्टाध्यायी ८.१.१५ ) इत्यादिना निपातः। परस्परेण नायोजयिष्यञ्चेत् न योजयेद्यदि तर्हि प्रजानां पत्युर्विधातुरस्मिन्द्वये द्वन्द्वे रूपविधानयत्नः सौन्दर्यनिर्माणप्रयासो वितथो विफलोऽभविष्यत्। एतादृशानुरूपस्त्रीपुंसान्तराभावादिति भावः। लिङ्निमित्ते लृङ्क्रियातिपत्तौ
(अष्टाध्यायी ३.३.१३९ ) इति लृङ्। कुतश्चित्कारणवैगुण्याक्रियाया अनभिनिष्पत्तिः क्रियातिपत्तिः
इति वृत्तिकारः ॥
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प | र | स्प | रे | ण | स्पृ | ह | णी | य | शो | भं |
न | चे | दि | दं | द्व | न्द्व | म | यो | ज | यि | ष्यत् |
अ | स्मि | न्द्व | ये | रू | प | वि | धा | न | य | त्नः |
प | त्युः | प्र | जा | नां | वि | त | थो | ऽभ | वि | ष्यत् |