सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
पुरोपकण्ठेति॥ किंच, पुरस्योपकण्ठे समीप उपवनान्याश्रयो येषां तेषां कलापिनां बर्हिणामुद्धतनृत्यहेतौ मेघध्वनिसादृश्यात्ताण्डवकारणे। प्रध्माताः पूरिताः शङ्खा यत्र तस्मिन्। मङ्गलार्थे मङ्गलप्रयोजनके । तूर्यस्वने वाद्यघोषे। परितः सर्वतो दिगन्तान्मूर्च्छति व्याप्नुवति सति ॥
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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पु | रो | प | क | ण्ठो | प | व | ना | श्र | या | णां |
क | ला | पि | ना | मु | द्ध | त | नृ | त्य | हे | तौ |
प्र | ध्मा | त | श | ङ्खे | प | रि | तो | दि | ग | न्तां |
स्तू | र्य | स्व | ने | मू | र्च्छ | ति | म | ङ्ग | ला | र्थे |