सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
नेत्रेति॥ पौरजनस्य नेत्रव्रजाः सर्वान्नृपतीन्विहाय तस्मिन्नजे निपेतुः। स एव सर्वोत्कर्षेण ददृश इत्यर्थः। कथमिव? मदोत्कटे मदेनोद्भिन्नगण्डे निर्भरमदे वा वन्ये गन्धद्विपे गन्धप्रधाने द्विपे गजे। रेचिता रिक्तीकृताः पुष्पाणां वृक्षा यैस्ते। त्यक्तपुष्पवृक्षा इत्यर्थः। द्विरेफा भृङ्गा इव। द्विपस्य वन्य
विशेषणै द्विरेफाणां पुष्पवृक्षत्यागसंभावनार्थं कृतम् ॥
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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ने | त्र | व्र | जाः | पौ | र | ज | न | स्य | त | स्मि |
न्वि | हा | य | स | र्वा | न्नृ | प | ती | न्नि | पे | तुः |
म | दो | त्क | टे | रे | चि | त | पु | ष्प | वृ | क्षा |
ग | न्ध | द्वि | पे | व | न्य | इ | व | द्वि | रे | फाः |