तत्र नियुक्तः
(अष्टाध्यायी ४.४.६९ ) इति ठक्प्रत्ययः। द्वारादीनां च
(अष्टाध्यायी ७.३.४ ) इत्यौ-आगमः। आकारेण देवसरूपं देवतुल्यम्। उरगाख्यस्य पुरस्य पाण्ड्यदेशे कान्यकुब्जतीरवर्तिनागपुरस्य नाथमेत्य प्राप्य। हे चकोराक्षि! इतो विलोकयेति पूर्वानुशिष्टां पूर्वमुक्तां भोजस्य राज्ञो गोत्रापत्यं स्त्रियं भोज्यामिन्दुमतीम्। क्रौड्यादिभ्यश्च
(अष्टाध्यायी ४.१.८० ) इत्यत्र भोजाक्षत्रियात्
इत्युपसंख्यानात्ष्यङ्प्रत्ययः। यङश्चाप्
(अष्टाध्यायी ४.१.७४ ) इति चाप्। निजगाद। इतो विलोक्य
इति पूर्वमुक्त्वा पश्चाद्वक्तव्यं निजगादेत्यर्थः ॥
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दौ | वा | रि | की | दे | व | स | रू | प | मे | त्य |
इ | त | श्च | को | रा | क्षि | वि | लो | क | ये | ति |
पू | र्वा | नु | शि | ष्टां | नि | ज | गा | द | भो | ज्याम् |