सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
प्रलोभितेति॥ आकृत्या रूपेण लोभनीयाऽऽकर्षणीया। न तु वर्णनमात्रेणेत्यर्थः। विदर्भराजावरजा भोजानुजेन्दुमती तया सुनन्दयैवं प्रलोभितापि प्रचोदितापि। नीत्या पुरुषकारेण द्वरकृष्टा दूरमानीता लक्ष्मीः प्रतिकूलं दैवं यस्य तस्मात्पुंस इव। तस्माद्धेमाङ्गदादपावर्तत प्रतिनिवृत्ता ॥
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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प्र | लो | भि | ता | प्या | कृ | ति | लो | भ | नी | या |
वि | द | र्भ | रा | जा | व | र | जा | त | यै | वम् |
त | स्मा | द | पा | व | र्त | त | दू | र | कृ | ष्टा |
नी | त्ये | व | ल | क्ष्मीः | प्र | ति | कू | ल | दै | वात् |