मन्द्रस्तु गम्भीरे
इत्यमरः (अमरकोशः १.७.२ ) । ध्वनिना त्याजितं विवर्जितं यामस्य तूर्यं प्रहरावसानसूचकं वाद्यं येन स तथोक्तः। द्वौ यामप्रहरौ समौ
इत्यमरः (अमरकोशः १.७.२ ) । अर्णव एव प्रबोधयति। अर्णवस्यैव तूर्यकार्यकारित्वात्तद्वैयर्थ्यमित्यर्थथः। समुद्रस्यापि सेव्यः किमन्येषामिति भावः ॥
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य | मा | त्म | नः | स | द्म | नि | सं | नि | कृ | ष्टो |
म | न्द्र | ध्व | नि | त्या | जि | त | या | म | तू | र्यः |
प्रा | सा | द | वा | ता | य | न | दृ | श्य | वी | चिः |
प्र | बो | ध | य | त्य | र्ण | व | ए | व | सु | प्तम् |