किल
इत्यैतिह्ये। वक्षःस्थलव्यापिरुचं मणि दधानो यः सुषेणः सकौस्तुभं कृष्णं विष्णुं ह्रपयतीव व्रीडयतीव । अर्तिह्री-
(अष्टाध्यायी ७.३.३६ ) इत्यादिना पुगागमः। कौस्तुभमणेरप्युत्कृष्टोऽस्य मणिरिति भावः ॥
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त्र | स्ते | न | ता | र्क्ष्या | त्कि | ल | का | लि | ये | न |
म | णिं | वि | सृ | ष्टं | य | मु | नौ | क | सा | यः |
व | क्षः | स्थ | ल | व्या | पि | रु | चं | द | धा | नः |
स | कौ | स्तु | भ | ह्ने | प | य | ती | व | कृ | ष्णम् |