सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
यस्येति॥ हिमांशोः कान्तिश्चन्द्रकिरणा इव नयनयोरभिरामा यस्य सुषेणस्या कान्तिः शोभाऽऽत्मगेहे स्वभवने संनिविष्टा संक्रान्ता। अविषह्यं विसोढुमशक्यं तेजः प्रतापस्तु। हर्म्याग्रेषु धनिकमन्दिरप्रान्तेषु। हर्म्यादि धनिनां वासः
इत्यमरः (अमरकोशः २.२.१० ) । संरूढास्तृणाङ्कुरा येषां तेषु। शून्येष्वित्यर्थः। रिपुमन्दिरेषु शत्रुनगरेषु। मन्दिरं नगरे गृहे
इति विश्वः। संनिविष्टम्। स्वजनाह्लादकोऽयं द्विषंतपश्चेति भावः ॥
छन्दः
इन्द्रवज्रा [११: ततजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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य | स्या | त्म | गे | हे | न | य | ना | भि | रा | मा |
का | न्ति | र्हि | मां | शो | रि | व | सं | नि | वि | ष्टा |
ह | र्म्या | ग्र | सं | रू | ढ | तृ | णा | ङ्कु | रे | षु |
ते | जो | ऽवि | ष | ह्यं | रि | पु | म | न्दि | रे | षु |
त | त | ज | ग | ग |