सेनानीरग्निभूर्गुहः
इत्यमरः (अमरकोशः १.१.४९ ) । भूयिष्ठमत्यर्थमुपमेयकान्तिरासीत्। मयूरस्य विचित्ररूपत्वात्तत्साम्यं रत्नासनस्य, तद्द्वारा च तदारूढयोरपगीति भावः ॥
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प | रा | र्ध्य | व | र्णा | स्त | र | णो | प | प | न्न |
मा | से | दि | वा | न्र | त्न | व | दा | स | नं | सः |
भू | यि | ष्ठ | मा | सी | दु | प | मे | य | का | न्ति |
र्म | यू | र | पृ | ष्ठा | श्र | यि | णा | गु | हे | न |