सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
अकार्येति॥ विनेता शिक्षको यः कार्तवीर्यः। अकार्यस्यासत्कार्यस्य चिन्तया च अहं चौर्यादिकं करिष्यामी
ति बुद्ध्या। समकालमेककालमेव यथा तथा पुरस्तादग्रे चापधरः। अन्तः शरीरेष्वन्तःकरणेषु। शरीर
शब्देनेन्द्रियं लक्ष्यते। अविनयमपि प्रत्यादिदेश। मानसापराधमपि निवारयामासेत्यर्थः। अन्ये तु वाक्कायापराधमात्रप्रतिकर्तार इति भावः ॥
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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अ | का | र्य | चि | न्ता | स | म | का | ल | मे | व |
प्रा | दु | र्भ | वं | श्चा | प | ध | रः | पु | र | स्तात् |
अ | न्तः | श | री | रे | ष्व | पि | यः | प्र | जा | नां |
प्र | त्या | दि | दे | शा | वि | न | यं | वि | ने | ता |