जन्या मातृसखीमुदोः
इति विश्वः। सुनन्दां याहि गच्छेत्यवदत्। यातेति जन्यानवदत्
इति पाठे-जनीं वधूं वहन्तीति जन्या वधूबन्धवः। तान्यात गच्छतेत्यवदत्। जन्यो वरवधूज्ञातिप्रियतुल्यहिते।ञपि च
इति विश्वः। अथवा, -जन्या वधूभृत्याः। भृत्याश्चापि नवोढायाः
इति केशवः। संज्ञायां जन्या
(अष्टाध्यायी ४.४.८२ ) इति यत्प्रत्ययान्ते निपातः। यदत्राह वृत्तिकारः-जनीं वधूं वहन्तीति जन्या जामातुर्वयस्याः
इति। यञ्चामरः-जन्याः स्निग्धा वरस्य ये
इति। तत्सर्वमुपलक्षणार्थमित्यविरोधः। न चायमङ्गराजनिषेधो दृश्यदोषान्नापि द्रष्टृदोषादित्याह-नेत्यादिना॥ असावङ्गराजः काम्यः कमनीयो नेति न, किंतु काम्य एवेत्यर्थः। सा कुमारी च सम्यग्द्रष्टुं विवेक्तुं न वेदेति न, वेदेत्यर्थः। लोको जनो भिन्नरुचिर्हि रुचिरमपि किंचित्कस्मैचिन्न रोचते। किं कुर्मो न हीच्छा नियन्तुं शक्यत इति भावः ॥
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अ | था | ङ्ग | रा | जा | द | व | ता | र्य | च | क्षु |
र्या | ही | ति | ज | न्या | म | व | द | त्कु | मा | री |
ना | सौ | न | का | म्यो | न | च | वे | द | स | म्य |
ग्द्र | ष्टुं | न | सा | भि | न्न | रु | चि | र्हि | लो | कः |