सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
काममिति॥ अन्ये नृपाः कामं सहस्रशः सन्तु। भूमिमनेन राजन्वतीं शोभनराजवतीमाहुः। नैतादृक्कश्चिदस्तीत्यर्थः। सुराज्ञि देशे राजन्वान्स्यात्ततोऽन्यत्र राजवान्
इत्यमरः (अमरकोशः २.१.१४ ) । राजन्वान्सौराज्ये
(अष्टाध्यायी ८.२.१४ ) इति निपातनात्साधुः। तथा हि - नक्षत्रैरश्विन्यादिभिस्ताराभिः साधारणैर्ज्योतिर्भिर्ग्रहैर्भौमादिभिश्च संकुलाऽपि रात्रिश्चन्द्रमसैव ज्योतिरस्या अस्तीति ज्योतिष्मती। नान्येन ज्योतिषेत्यर्थः ॥
छन्दः
इन्द्रवज्रा [११: ततजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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का | मं | नृ | पाः | स | न्तु | स | ह | स्र | शो | ऽन्ये |
रा | ज | न्व | ती | मा | हु | र | ने | न | भू | मिम् |
न | क्ष | त्र | ता | रा | ग्र | ह | सं | कु | ला | पि |
ज्यो | ति | ष्म | ती | च | न्द्र | म | सै | व | रा | त्रिः |
त | त | ज | ग | ग |