रतिः स्मरप्रियायां च रागे च सुरते स्मृता
इति विश्वः। रतेः कामप्रियाया गृहीतानुनयेन स्वीकृतप्रार्थनेन। गृहीतरत्यनुनयेनेत्यर्थः। सापेक्षत्वेऽपि गमकत्वात्समासः। ईश्वरेण हरेण प्रत्यर्पितस्वाङ्गं काममिव स्थितं काकुत्स्थमजमालोकयतां नृपाणां मन इन्दुमतीनिराशं वैदर्भीनिःस्पृहं बभूव, इन्दुमती सत्पतिमेनं विहाय नास्मान्वरिष्यति
इति निश्चिक्युरित्यर्थः। सर्वातिशयसौन्दर्यं मत्वेति भावः ॥
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र | ते | र्गृ | ही | ता | नु | न | ये | न | का | मं |
प्र | त्य | र्पि | त | स्वा | ङ्ग | मि | वे | श्व | रे | ण |
का | कु | त्स्थ | मा | लो | क | य | तां | नृ | पा | णां |
म | नो | ब | भू | वे | न्दु | म | ती | नि | रा | शम् |