सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
आकुञ्चितेति॥ ततः पूर्वोक्तादन्योऽपरो राजा किंचित्समावर्जितनेत्रशोभ ईषदर्वाक्पातितनेत्रशोभः सन्। आकुञ्चिता आभुग्रा अग्राङ्गुलयो यस्य तेन तिर्यग्विसंसर्पिण्यो नखप्रभा यस्य तेन च पादेन हैमं हिरण्मयं पीठं पादपीठं विलिलेख लिखितवान्। पादाङ्गुलीनामाकुञ्चनेन त्वं मत्समीपमागच्छ
-इति नृपभिप्रायः। भूमिविलेखकोऽयमपलक्षणकः
-इतीन्दुमत्याशयः। भूमिविलेखनं तु लक्ष्मीविनाशहेतुः ॥
छन्दः
इन्द्रवज्रा [११: ततजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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आ | कु | ञ्चि | ता | ग्रा | ङ्गु | लि | ना | त | तो | ऽन्यः |
किं | चि | त्स | मा | व | र्जि | त | ने | त्र | शो | भः |
ति | र्य | ग्वि | सं | स | र्पि | न | ख | प्र | भे | ण |
पा | दे | न | है | मं | वि | लि | ले | ख | पी | ठम् |
त | त | ज | ग | ग |