सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
नीवारेति॥ कालेषु योग्यकालेषूपपन्नानामगतानामतिथीनां कल्प्याभागा यस्य तत्तथोक्तम्। वने भवं वन्यम्। शरीरस्थिते र्जीवनस्य साधनं वो युष्माकम्। पच्यत इति पाकः फलम्। धान्यमिति यावत्। नीवारपाकादि। आदि
शब्दाञ्छ्यामाकादिधान्यसंग्रहः। जनपदेभ्य आगतैर्जानपदैः। तत आगतः
(अष्टाध्यायी ४.३.७४ ) इत्यण्। कडंगरीयैः। कडंगरं बुसमर्हन्तीति कडंगरीयाः। कडंगरो बुसंक्लीबे धान्यत्वचि तुषः पुमान्
इत्यमरः। कडंगरदक्षिणाच्छ च
(अष्टाध्यायी ५.१.६९ ) इति छप्रत्ययः। तैर्गोमहिषादिभिर्नामृश्यते कञ्चित् ? न भक्ष्यते किमित्यर्थः॥
छन्दः
इन्द्रवज्रा [११: ततजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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नी | वा | र | पा | का | दि | क | डं | ग | री | यै |
रा | मृ | श्य | ते | जा | न | प | दै | र्न | क | ञ्चित् |
का | लो | प | प | न्ना | ति | थि | क | ल्प्य | भा | गं |
व | न्यं | श | री | र | स्थि | ति | सा | ध | नं | वः |
त | त | ज | ग | ग |