पुत्र
ग्रहणं समानवयस्कत्वद्योतनार्थम्। सपदि विगतनिद्रः कुमारः। तल्पं शय्याम्। तल्पं शय्याट्टदारेषु
इत्यमरः (अमरकोशः ३.३.१३८ ) । उज्झांचकार विससर्ज। इजादेश्च गुरुमतोऽनृच्छः
(अष्टाध्यायी ३.१.३६ ) इत्याम्प्रत्ययः। कथमिव? मदेन पटु मधुरं निनदद्भी राजहंसैर्बोधितः सुप्रतीकाख्यः सुरगज ईशानदिग्गजः। गङ्गाया इदं गाङ्गम्। सैकतं पुलिनमिव। तोयोत्थितं तत्पुलिनं सैकतं सिकतामयम्
इत्यमरः (अमरकोशः ३.३.१३८ ) । सिकताशर्कराभ्यां च
(अष्टाध्यायी ५.२.१०४ ) इत्यण्प्रत्ययः। सुप्रतीक
ग्रहणं प्रायशः कैलासवालिनस्तस्य नित्यं गङ्गातटविहारसंभवादित्यनुसंधेयम् ॥
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इ | ति | वि | र | चि | त | वा | ग्भि | र्ब | न्दि | पु | त्रैः | कु | मा | रः |
स | प | दि | वि | ग | त | नि | द्र | स्त | ल्प | मु | ज्झां | च | का | र |
म | द | प | टु | नि | न | द | द्भि | र्बो | धि | तो | रा | ज | हं | सैः |
सु | र | ग | ज | इ | व | गा | ङ्गं | सै | क | तं | सु | प्र | ती | कः |
न | न | म | य | य |