सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
भवतीति। म्लानः पुष्पोपहारः पुष्पपूजा म्लानत्वादेव विरलभक्तिर्विरलरचनो भवति। प्रदीपाश्च स्वकिरणानां परिवेषस्य मण्डलस्योद्भेदेन स्फुरणेन शून्या भवन्ति, निस्तेजस्का भवन्तीत्यर्थः। अपि चायं मञ्जुवाङ्मधुरवचनः पञ्चरस्थस्ते तव शुकस्त्वत्प्रबोधनिमित्ते प्रयुक्तामुञ्चारितां नोऽस्माकं गिरं वाणीमनुवदति, अनुकृत्य वदतीत्यर्थः। इत्थं प्रभातलिङ्गानि वर्तन्ते, अतः प्रबोद्धव्यमिति भावः ॥
छन्दः
मालिनी [१५: ननमयय]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ |
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भ | व | ति | वि | र | ल | भ | क्ति | र्म्ला | न | पु | ष्पो | प | हा | रः |
स्व | कि | र | ण | प | रि | वे | षो | द्भे | द | शू | न्याः | प्र | दी | पाः |
अ | य | म | पि | च | गि | रं | न | स्त्व | त्प्र | वो | ध | प्र | यु | क्ता |
म | नु | व | द | ति | शु | क | स्ते | म | ञ्जु | वा | क्य | ञ्ज | र | स्थः |
न | न | म | य | य |