सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
दीर्घेष्विति॥ हे वनजाक्ष नीरजाक्ष! वनं नीरं वनं सत्त्वम्
इति शाश्वतः। दीर्घेषु पटमण्डपेषु नियमिता बद्धा वनायुदेश्या वनायुदेशे भवाः। पारसीका वनायुजाः
इति हलायुधः। अमी वाहा अश्वा निद्रां विहाय पुरोगतानि लेह्यान्यास्व्नाद्यानि सैन्धवशिलाशकनलानि। सैन्धवोऽस्त्त्री सितशिवं माणिमन्थं च सिन्धुजे
इत्यमरः। वक्त्रोष्मणा मलिनयन्ति मलिनानि कुर्वन्ति। उक्तं च सिद्धयोगसंग्रहे-पूर्वाह्णकाले चाश्वानां प्रयाशो लवणं हितम्। शूलानाहविबन्धघ्नं लवणं सैन्धवं वरम् ॥
इत्यादि ॥
छन्दः
वसन्ततिलका [१४: तभजजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ |
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दी | र्घे | ष्व | मी | नि | य | मि | ताः | प | ट | म | ण्ड | पे | षु |
नि | द्रां | वि | हा | य | व | न | जा | क्ष | व | ना | यु | दे | श्याः |
व | क्त्रो | ष्म | णा | म | लि | न | य | न्ति | पु | रो | ग | ता | नि |
ले | ह्या | नि | सै | न्ध | व | शि | ला | श | क | ला | नि | वा | हाः |
त | भ | ज | ज | ग | ग |