सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
शय्यामिति॥ उभाभ्यां पक्षाभ्यां पार्श्वाभ्यां विनीताऽपगता निद्रा येषां त उभयपक्षविनीतनिद्राः। अत्र समासविषय उभ
शब्दस्थाने उभय
शब्दप्रयोग एव साधुरित्यनुसंधेयम्। यथाह कैयटः--"उभादुदात्तो नित्यम्" इति नित्यग्रहणस्येदं प्रयोजनं वृत्तिविषय
उभशब्दस्य प्रयोगो मा भूत्।
उभयशब्दस्यैव यथा स्यात्। उभयपुत्र इत्यादि भवति
इति। मुखराण्युत्थानचलनाच्छब्दायमानानि शृङ्खलानि निगडानि कर्षन्तीति तथोक्तास्ते तव स्तम्बे रमन्त इति स्तम्बेरमा हस्तिनः। स्तम्बकर्णयो रमिजपाः
(अष्टाध्यायी ३.२.१३ ) इत्यच्प्रत्ययः। हस्तिसूचकयोः
(वा.१९९४)इति वक्तव्यात्। इभः स्तम्बेरमः पद्मी
इत्यमरः (अमरकोशः २.८.३५ ) । तत्पुरुषे कृति बहुलम्
(अष्टाध्यायी ६.३.१४ ) इति सप्तम्या अलुक्। शय्यां जहति त्यजन्ति येषां स्तम्बेरमाणाम्। दन्ताः कोशाः इव दन्तकोशाः। दन्तकुडम्भलास्तरुणारुणरागयोगाद्बालार्कारुणसंपर्काद्धेतोर्भिन्नाद्रागैरिकतटा इव विभान्ति। धातुरक्ता इव भान्तीत्यर्थः॥
छन्दः
वसन्ततिलका [१४: तभजजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ |
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श | य्यां | ज | ह | त्यु | भ | य | प | क्ष | वि | नी | त | नि | द्राः |
स्त | म्बे | र | मा | मु | ख | र | श्रृ | ङ्ख | ल | क | र्षि | ण | स्ते |
ये | षां | वि | भा | न्ति | त | रु | णा | रु | ण | रा | ग | यो | गा |
द्भि | न्ना | द्रि | गै | रि | क | त | टा | इ | व | द | न्त | को | शाः |
त | भ | ज | ज | ग | ग |