सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
यावदिति॥ प्रतापनिधिस्तेजोनिधिर्भानुर्यावन्नाक्रमते नोद्गच्छति। आङउद्गमने
(अष्टाध्यायी १.३.४० ) इत्यात्मनेपदम्। तावत्। भानावनुदित एवेत्यर्थः। अह्नाय झिटिति। द्राग्झटित्यञ्जसाह्राय
इत्यमरः (अमरकोशः २.८.१०३ ) । अरुणेनानूरुणा। सूर्यसूतोऽरुणोऽनूरुः
इत्यमरः (अमरकोशः २.८.१०३ ) । तमो निरस्तम्। तथा हि- हे वीर। त्वय्यायोधनेषु युद्धेषु। युद्धमायोधनं जन्यम्
इत्यमरः (अमरकोशः २.८.१०३ ) । अग्रसरतां पुरःसरतां याते सति तव गुरुः पिता रिपून् स्वयमुच्छिनत्ति किं वा? नोच्छिनत्त्येवेत्यर्थः। न खलु योग्यपुत्रन्यस्तभाराणां स्वामिनां स्वयं व्यापारखेद इति भावः ॥
छन्दः
वसन्ततिलका [१४: तभजजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ |
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या | व | त्प्र | ता | प | नि | धि | रा | क्र | म | ते | न | भा | नु |
र | ह्ना | य | ता | व | द | रु | णे | न | त | मो | नि | र | स्तम् |
आ | यो | ध | ना | ग्र | स | र | तां | त्व | यि | वी | र | या | ते |
किं | वा | रि | पूं | स्त | व | गु | रुः | स्व | य | मु | च्छि | न | त्ति |
त | भ | ज | ज | ग | ग |