सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
तदिति॥ तत्तस्माल्लक्ष्मीपरिग्रहणाद्वल्गुना मनोज्ञेन। वल्गु स्थाने मनोज्ञे च वल्गु भाषितमन्यवत्
इति विश्वः। युगपत्तावदुन्मिषितेन युगपदेवोन्मीलनेन सद्यो द्वे अपि परस्परतुलामन्योन्यसादृश्यमधिरोहतां प्राप्नुताम्। प्रार्थनायां लोट्। के द्वे? अन्तः प्रस्पन्दमाना चलन्ती परुषेतरा स्निग्धा तारा कनीनिका यस्य तत्तथोक्तम्। तारकाक्ष्णः कनीनिका
इत्यमरः (अमरकोशः २.६.९३ ) । तव चक्षुः। अन्तः प्रचलितभ्रमरं चलद्भृङ्गं पद्मं च। युगपदुन्मिषिते सति संपूर्णसादृश्यलाभ इति भावः ॥
छन्दः
वसन्ततिलका [१४: तभजजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ |
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त | द्व | ल्गु | ना | यु | ग | प | दु | न्मि | षि | ते | न | ता | व |
त्स | द्यः | प | र | स्प | र | तु | ला | म | धि | रो | ह | तां | द्वे |
प्र | स्प | न्द | मा | न | प | रु | षे | त | र | ता | र | म | न्त |
श्च | क्षु | स्त | व | प्र | च | लि | त | भ्र | म | रं | च | प | द्मम् |
त | भ | ज | ज | ग | ग |